— (Inspired by हरिवंश राय बच्चन जी)
"मैं सागर से पूछ चला"
ना साथ कोई पतवार रही, ना पीछे सहारा है।
थककर जीवन की राहों से, कुछ सोच चला, मौन चला,
मैं कौन रहा? मैं क्या हूँ अब? बस सागर से पूछ चला।
ना दिवस रहा, ना रात रही, ना समय का कोई राग,
लहरें आतीं, लहरें जातीं, जैसे जीवन का त्याग।
स्मृतियों की छाया लहरें बन, मेरे पैरों में खेल रही,
सपनों की जो कश्ती थी, अब मौन कथा वो कह रही।
कभी बाँध रखे थे सपने, अब सब बंधन ढलते हैं,
कभी प्रीत की जो दीप जले, वो भी नीरस जलते हैं।
ना रोना, ना हँसना बाकी, बस शून्य में टिका हुआ,
मैं समय-प्रवाह का राही, बस पथ पर रुका हुआ।
जो बीत गया, वो गीत गया, अब शेष नहीं कोई बात,
बस एक अकेला प्रश्न बचा — क्यों आया यह दिन की रात?
उत्तर ढूँढ़ न सका कहीं, ना जग, ना आत्मा ने कहा,
मैं लहरों से ना थका कभी — पर मौन मुझे अब ले चला।
"चलो उसी मौन में बह जाएँ,
जहाँ ना प्रश्न हो, ना उत्तर आएँ..."